Election 2024 : यूपी की जीत के लिए ब्राह्मण क्यों है जरूरी !इस जाति को कहा जाता है गेमचेंजर?

Election 2024 : यूपी की  जीत के लिए ब्राह्मण क्यों है जरूरी !इस जाति को कहा जाता है गेमचेंजर?


1984 की आठवीं लोकसभा में कुल 108 ब्राह्मण जीतकर संसद पहुंचे थे और यह दौर ब्राह्मणों के संसद पहुंचने का सबसे सुनहरा दौर था


देश के अबतक पांच ब्राह्मण प्रधानमंत्रियों में से चार कांग्रेस पार्टी से ही आए हैं, जबकि एक प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा से जुडे हैं

यूपी की जातिगत राजनीति में ब्राह्मण मतदाता समय-समय पर खुद को गेमचेंजर साबित करते रहे हैं. चुनाव में ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने के लिए बीजेपी से लेकर सपा-बसपा हो या काग्रेस सभी अपने-अपने तरह से मोर्चें तैयार करते रहे हैं.

कहा जाता है क‍ि यूपी की जात‍िवादी स‍ियासत (Caste Politics) में जीत के ल‍िए  ब्राह्मण जरूरी हैं. भले ही यूपी में ब्राह्मणों की कुल आबादी 12 फीसदी है, लेक‍िन यह आबादी यूपी में राजनीत‍िक दलों के ल‍िए गेंमचेंजर साब‍ित होती रही है. 


यूपी की सत्‍ता पर लगभग 39 सालों तक ब्राह्मण मुख्‍यमंत्री काबिज रहे है


यूपी में ब्राह्मण काल आजादी के बाद से लेकर 1989 तक माना जाता है. इस अवधि में 39 साल तक ब्राह्मणों ने प्रदेश की सत्ता को संभाला. इस दौरान छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री प्रदेश की सत्ता पर बैठे.

1.गोविंद वल्लभ पंत दो बार

2.सुचेता कृपलानी

3.कमलापति त्रिपाठी

4.हेमवती नंदन बहुगुणा

5.श्रीपत मिश्रा 

6.नारायण दत्त तिवारी तीन बार


राजनीत‍िक पंडि‍त मानते हैं क‍ि 1989 तक यूपी के ब्राह्मणों का कांग्रेस पर भरोसा था. तब से यूपी की स‍ियासत पर कांग्रेस काबि‍ज होती रही है.लेक‍िन 1990 के दशक में ब्राह्मणोंं का झुकाव बीजेपी की तरफ होने लगा. ज‍िसमें बीजेपी की राममंद‍िर यात्रा ने अहम भूम‍िका न‍िभाई.

ब्राह्मणों ने  90 के दशक में बीजेपी की तरफ झुकाव द‍िखा कर एक बार फ‍िर खुद को गेमचेंजर साब‍ित क‍िया और बीजेपी ने पहली बार सरकार बनाई.2007 में बसपा की जीत में ब्राह्मणों की अहम भूम‍िका रही. वहीं 2017 में एक बार फ‍िर बीजेपी का ब्राह्मणोंं का भराेसा बनी और बीजेपी की सरकार बनी।


यूपी के ब्राह्मण मतदाता 12 ज‍िलाें के 62 सीटोंं पर सीधा असर डालते है

इस आबादी का 12 जनपदों की 62 विधानसभा सीटों पर सीधा असर है. जो हार-जीत में निर्णायक भूमिका अदा करते रहे हैं।इन ज‍िलों में वाराणसी ,महाराजगंज गोरखपुर, देवरिया ,भदोही, चंदौली ,जौनपुर, बस्ती संतकबीरनगर, अमेठी, बलरामपुर ,कानपुर, प्रयाग राज शाम‍िल हैं. जहां ब्राह्मण मतदाता प्रत्‍येक सीट पर 15 फीसदी से ज्यादा हैं.


बीजेपी दूसरे दलों के ब्राह्मण नेताओं को अपने पाले में लाने में सफल रही है.सपा पूर्व में ही ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने के ल‍िए 108 फीट ऊंची भगवान परशुराम की मूर्ति लगा चुकी है. राजनीत‍िक पंड‍ित कहते हैं क‍ि ब्राह्मणों ने  90 के दशक में बीजेपी की तरफ झुकाव द‍िखा कर एक बार फ‍िर खुद को गेमचेंजर साब‍ित क‍िया और बीजेपी ने पहली बार सरकार बनाई. इसके बाद यूपी की स‍ियासत जा‍त‍ि आधार‍ित माइक्रो मैनजमेंट में चली गई. ज‍िसके आधार पर बसपा और सपा ने सरकार बनाई, लेक‍िन बसपा और सपा की खांटी जात‍ि व‍िशेष आधारि‍त राजनीत‍ि में ब्राह्मण दोनों ही दलों को अपनी तरफ आकर्षि‍त करते रहे. ज‍ि समें 2007 में बसपा की जीत में ब्राह्मणों की अहम भूम‍िका रही. 


भारतीय राजनीति के इस बदनाम दौर में भले ही अपनी सीमित आबादी के चलते पिछले कुछ दशकों से संसद और विधानसभाओं में ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा हो, लेकिन देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर लगभग सभी छोटे-बडे दलों में इनका वर्चस्व अभी भी बरकरार है। राजनीतिक जोड-तोड से लेकर प्रमुख रणनीतिकारों में अभी ब्राह्मणों का वर्चस्व कायम है।

ऐसे में जब देश कट्टर जातीय राजनीति के चपेट में है, तब भी मौजूदा लोकसभा में 50 सांसदों के साथ 9.17 प्रतिशत लोकसभा सीटों पर ब्राह्मणों का कब्जा बरकरार है। जो उसकी कुल आबादी के अनुपात में लगभग दोगुना है। वैसे 1984 की आठवीं लोकसभा में कुल 108 ब्राह्मण जीतकर संसद पहुंचे थे और यह दौर ब्राह्मणों के संसद पहुंचने का सबसे सुनहरा दौर था, जिसमें लोकसभा की कुल सीटों के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से पर ब्राह्मणों ने कब्जा कर लिया था। लेकिन उसके बाद ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व लगातार घटते-घटते अब 9.17 फीसदी तक गिर गया है।

फिलहाल इस जातीय अंकगणित को अगर दरकिनार कर दिया जाए तो भी कांग्रेस, भाजपा सहित तमाम छोटे-बडे दलों के प्रमुख नीति-नियामकों के रूप में अभी भी ब्राह्मणों का ही वर्चस्व है।

देश की राजनीति में आजादी से पहले और बाद में ब्राह्मणों की बड़ी भूमिका रही है. पंडित जवाहर लाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने तो देश के एक दर्जन राज्यों के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण थे. कई बड़े राज्यों तमिलनाडू, केरल, तेलंगाना, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री ब्राह्मण ही मिलते हैं. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके संगठनों के अधिकतर प्रचारक और प्रमुख ब्राह्मण ही होते थे.

आंकड़े बताते हैं कि आजादी के आंदोलन में सबसे अधिक मध्यम और उच्च मध्यमवर्ग के लोग थे. इनमें भी अधिसंख्य ब्राह्मण ही थे. उस वक्त यही समुदाय सबसे शिक्षित और ज्ञानवान था, इसलिए आजादी के बाद भी राजनीति और प्रशासन में इनका आधिपत्य रहा.

गैर कांग्रेसी सरकारों ने ब्राह्मणों को किनारे लगाने का काम किया. मंडल-कमंडल की राजनीति शुरू होने के बाद ब्राह्मण लगातार पिछड़ता गया और पिछलग्गू बन गया.

उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल सहित आधा दर्जन राज्यों में ब्राह्मण दूसरे नंबर पर सबसे बड़ा वोट बैंक है. यूपी में यह दलितों के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक है. आंकड़े बताते हैं कि 1990 तक कांग्रेस का मूल मतदाता ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम होता था. अन्य जातियां ब्राह्मणों की अनुगामिनी होती थीं, जिससे वह सत्ता का बड़ा आधार बनते थे. कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी, जिन्हें उत्तर प्रदेश का विकास पुरुष कहा जाता था, आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे. उनके बाद कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री की कुर्सी तक नहीं पहुंच सका.

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